रविवार, 14 अक्तूबर 2012

खस्ता गज़ल - आहिस्ता आहिस्ता

लटकते जाये हैं गुले गाल आहिस्ता आहिस्ता
सफेदी चरने लगी डाई खिजाब आहिस्ता आहिस्ता।

बुढ़ाने लगे जब वो तो हमसे कर लिया परदा
झुर्रियाँ आईं चकाचक, टुटे दाँत आहिस्ता आहिस्ता।

अब के पैरों को सलामत मत दबाना जोर से
उंगलियाँ चटकें तुम्हारी, मैं कहूँ आहिस्ता आहिस्ता।

उनसे मिलने की तड़प में हम जो जागे रात भर
खाँसियाँ बढ़ती गईं, फूली साँस आहिस्ता आहिस्ता।

पहले उनके बुलाने से तैयार होते थे तुरत
रंग में देरी बहुत चढ़े खिजाब आहिस्ता-आहिस्ता।

अब के सावन में वो झूले ना पड़ेंगे डार पर
हड्डियाँ तड़क चुकीं, कमर कमान आहिस्ता आहिस्ता।


पहले वे जो पकातीं खा जाते थे गपक
लपलपी अब जीभ ढूंढ़े है बत्तीसी आहिस्ता आहिस्ता।
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(नकलनवीश वस्तादों से क्षमा। मीटर ले कर नापने वाले अपना रास्ता नापें या तवक्कुफ, तरबाना, सरबाना तफलीब-ए-तरन्नुम में खुदे कर के पर्ह लें) 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

हम क्या हैं?

खिड़की पर ओर्किड
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

कभी काग़ज़ी बादाम हैं
कभी ये टपके आम हैं
तारीफ़ अपनी क्या करें
जो आदमी गुमनाम हैं

कभी ये बिगड़ा काम हैं
कभी छलकता जाम हैं
कैसे मियाँ  मिट्ठू बनें
जो आदमी बदनाम हैं

रक़ीबों का पयाम हैं
सुबह न गुज़री शाम हैं
अपने मुँह से क्या कहें
जो हर तरफ़ नाकाम हैं

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

फेसबुक, त्रिकालजयी कविता और मूर्धन्य विश्लेषण

फेसबुक पर केवल फालतू बकबक नहीं होती, त्रिकालजयी काव्य का भी सृजन होता है। उसकी व्याख्यायें और विमर्शादि भी घटित होते हैं। एक नमूना:
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  • चाहे जो कहिये, हिन्दी ब्लॉग जगत को देख कर तो यही लगता है कि कविताओं में महारत स्त्रियों को ही हासिल है। ऐसे ऐसे दिग्गज विद्वान साष्टांग टिप्पणियों और चर्चाओं में लगे होते हैं कि मुझे अपनी समझ पर भारी शंका होने लगती है। पिछले सप्ताह से तो मैं मान बैठा हूँ कि मुझे कविताओं की समझ ही नहीं है।
     ·  ·  · 

      • Abhishek Ojha आपको नहीं है समझ?
        कविता की !
        कर रहे हैं -
        बात क्या ?
        [इसे त्रिकालजयी कविता कह दीजिये]

        10 hours ago via mobile ·  · 2

      • गिरिजेश भोजपुरिया एक कालजयी कविता:
        इस कविता में चार चरण हैं जिनके मात्रा और गण विन्यास में बीटा डिस्ट्रीब्यूशन का प्रयोग किया गया है। संसार की किसी भी भाषा में इस विन्यास में रची गयी यह पहली कविता है।

        10 hours ago ·  · 1

      • गिरिजेश भोजपुरिया प्रश्न से प्रारम्भ कर के प्रश्न से ही समाप्त कर के कवि ने मैथिली शरण गुप्त की उस अवसानग्रस्त परम्परा को पुनर्जीवन दिया है जिसका सारे संसार में कोई सानी नहीं।
        10 hours ago ·  · 1

      • गिरिजेश भोजपुरिया मात्र तेरह वर्णों का प्रयोग कर कवि ने यह सिद्ध कर दिया है कि 13 का अंक केवल अशुभ ही नहीं होता, उसके द्वारा कविता भी रची जा सकती है ।
        10 hours ago ·  · 1

      • Rajani Kant वाह वाह वाह वाह
        शब्द तो थे मगर मानी कहाँ से लाता
        मेरे मुरीद इसको भी मेरी शायरी कहते

        9 hours ago via mobile ·  · 1

      • Lalit Sharma वाह वाह वाह वाह :))))))))))))
        9 hours ago ·  · 1

      • गिरिजेश भोजपुरिया पहले चरण में 13 मात्रायें हैं, यह अनायास ही नहीं है। 13 को पुन: सम्मान दे कर कवि ने एक उपेक्षित सर्वहारा अंक को गरिमा प्रदान की है। साहित्यिक क्रांति दीवारों के बजाय फेसबुक पर भी की जा सकती है, यह कविता इसका पहला प्रमाण है।
        9 hours ago ·  · 2

      • Salil Varma ‎:))
        9 hours ago · 

      • गिरिजेश भोजपुरिया दूसरे चरण में 6, तीसरे में 7 और चौथे में 5 मात्रायें हैं। 5,6,7 की इतना रहस्यपूर्ण प्रयोग पहले कभी नहीं देखा गया। कुल 31 मात्रायें हैं जो कि 13 के अंकस्थान बदलने से होती हैं। कवि यह बताना चाह रहा है कि चाहे जैसे भी प्रश्न हों, अंतत: प्रश्न ही रह जाते हैं - इधर से या उधर से, प्रारम्भ से या अंत से - हर तरफ से! और प्रश्नों के उत्तर देने में दिमाग का तिया पाँचा वैसे ही होता है जैसे 5,6 और 7 के क्रम का कविता में हो गया है!
        9 hours ago ·  · 2
      • गिरिजेश भोजपुरिया इस महान कविता के शिल्प की चर्चा तो हो गई। अब कविता की व्याख्या श्री Rajani Kant जी करेंगे।
        9 hours ago · 

      • Rajani Kant यगण मगण तगड़ रगड़ रगड़ झगड़ झगड़
        8 hours ago via mobile ·  · 1

      • Shiv Mishra समझ कविता की
        पाने को
        घुसना पड़ेगा कविता के अन्दर
        खोज करनी पड़ेगी उस दरवाजे की
        कि जो देता है रास्ता
        कविता तक पहुंचने का।

        about an hour ago via mobile ·  · 2

      • गिरिजेश भोजपुरिया रजनी कांत जी ने सात गूढ़ शब्दों में पूरी कविता की व्याख्या कर के एक नया प्रतिमान स्थापित किया है कि व्याख्या कविता की शब्द संख्या से भी कम शब्दों में हो सकती है। शिव मिश्र जी ने ऐसी व्याख्या की चुनौतियों पर मुक्तिबोधी टार्च से गूढ़ प्रकाश डाला है। आभार।
        2 minutes ago · 




मंगलवार, 12 जून 2012

चक्कू रामपुरी "अहिंसक" के सर्वश्रेष्ठ खस्ता दोहे

(चित्र व दोहे: अनुराग शर्मा)


तुकमारिया खायें, खस्ता शेर बनायें, पुरस्कार पायें
बे बाँटैं तौ रेवड़ी, हम कर दें तौ खून
बे तौ मालामाल हैं, हम तरसैं दो जून

आइस पाइस टीप के, बने टिप्पणी वीर
दाने पाँच न बो सकैं, फिर भी खाबैं खीर

छुरी बगल मैं दाब के, झूठा कर गुनगान
ईटा सर पे मारता, मुख पर है मुस्कान

सच्चा सेवक बन रहा, रहा झूठ की खान
रेवड़ी बोतल बाँट के,  बन जइहै परधान

भालो उसको देख कै, सरक लये हैं लोग
भोले पर जा बरसते, है कैसो जा संजोग

बिल्ली उसको जानिये, मन में जो मुस्काय
छिप-छिप पंजा मार के, माल मलाई खाय

ऊँचा भया तौ का भया, ज्यूँ टावर मोबाइल
सिगनल इतना वीक है, कछहुँ नहीं सुनाइल






गुरुवार, 24 मई 2012

टांग चबाते रहिये

(चित्र व दोहे: अनुराग शर्मा)


जापान से स्वर्णजटित मिष्ठान्न
अंटी में नामा भरा अपनी सुनाते रहिये
माल जो मुफ्त मिले जम के उड़ाते रहिये

नज़्र चूके औ वो सामने पड़ जायें तौ
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये*

हूट करता हो जहाँ, बोर न समझें खुद को
टोके जग सारा तो भी अपनी बताते रहिये

जो कही खूब कही अब तो निकल ले शायर
रात भर शेर सुने सामयीन सताते रहिये

रूप गुण काम नहीं आते हैं इस दुनिया में
सौदागर फूस के हैं स्वर्ण छिपाते रहिये
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* एक प्रसिद्ध शायर की शब्दावली से साभार

शनिवार, 24 मार्च 2012

किसने क्या किया?

किसी ने नाम दिया
किसी ने दाम लिया
गिरने लगे जब भी
किसी ने थाम लिया
(~ अनुराग शर्मा)

बुधवार, 14 मार्च 2012

चौपद



मुद्दत के बाद की मेहरबानी, जब इश्क़ पर भरोसा ही न बचा 

दौड़ा दिये खच्चरों को रेस में, बोझ ढोने को यह गधा ही बचा

सजग रहना न होना मशरूफ, अब चलेगी दुलत्ती और जोर से 

देर से सही अक्ल गई है खुल, भाँपने को कोई इरादा न बचा।

बुधवार, 7 मार्च 2012

होलिका के सपने

बरेली के एक शिक्षक कवि श्री ग्रिन्दलाल जी ने आपात्काल पर एक गीत रचा था, "कैसे झूलें रानी, खिसक गया पटरा।" होलिकादहन की रात्रि पर जलते हुए पटरे देखकर उनके शब्द याद आ गये और साथ ही याद आया होलिका मैया का आत्मविश्वास। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:

होलिका दहन की तैयारी
कुँवरि चुटैल हैं अब झूल न सकेंगी
और कोई झूलै तो पटरा खींच लेंगी

जीतने का दम नहीं हार उनकी तय है
चीख-चीख आकाश सिर पे ले धरेंगी

आग दिल में है नहीं आँच कैसे होगी
प्रह्लाद मरे कैसे धुआँधार ही करेंगी

अपनों में दोष कभी दानव न देखते
पाप खुद करें आरोप भक्त पे मढेंगी

भाई का राज कई बकरे सजातीं रोज़
रक्तपान में आनन्द क़ुर्बान वे करेंगी

होलिका के दर्शन को बौराये मत घूमो
इस जहाँ में अब कभी पग नहीं धरेंगी

असुरों के खानदान का अंत दूर नहीं
प्रह्लाद मार रहीं जल के खुद मरेंगी॥ 

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

चक्कू रामपुरी "अहिंसक" के खस्ता बावरे दोहे - उलटबांसी

(अनुराग शर्मा)

जौहरी जौहर न करे चाची पिये न चाय
दुनिया उल्टी चल पड़ी आय जेब से जाय

एडवांस में फीस ली, डेट करी एडवांस
पैसा लेके भग लिये, काम का नक्को चांस

वोट मांगने आ गये, जोड़ रहे अब हात
पाँच बरस तक पेट पे जो मार रहे थे लात

कबिरा प्रेम है बावरा, जामे कोई न स्मार्ट
एमडी पास बता रही, है फ़ेल्ड बैचलर आर्ट

सोमवार, 30 जनवरी 2012

है दुनिया इन्हीं की ज़माना इन्हीं का

(अनुराग शर्मा)

कभी ये भी मालामाल थे
कभी इनके सर पे भी बाल थे
इन्हें आज की न मिसाल दो
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

ये मुँह तो शादी से बन्द है
पहले ये बहुत ही वाचाल थे
अब अपने आप ही क्या कहैं
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

लाजवाब और बेसवाल थे
ये ग़ज़लची चच्चा कव्वाल थे
बस इन्हींकी तूती थी बोलती
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

रिश्वत मैया के प्यारे लाल थे
पड़े काम तो करते हलाल थे
बख्शीश बिन न हिले कभी
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

शनिवार, 21 जनवरी 2012

रसोई में कुत्ता आया

भूखा कुत्ता
फिल्मों के कई गीतों में 'खस्ता' टाइप के बोल सुनाई दे जाते हैं जैसे किसी एक गाने में यह पंक्ति है - तम्बाकू नहीं है कैसे कटेगी सारी रात, बुढ़िया रोये..। प्रश्न यह है कि ऐसा साहित्यिक कृतियों में भी होता होगा? उत्तर है - हाँ।
अपनी प्रसिद्ध रचना 'वेटिंग फ़ॉर गॉडो' में सैम्युअल बैकिट एक खस्ता रचना से हमें रूबरू कराते हैं। अनुवाद है - कृष्ण बलदेव वैद का।
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रसोई में कुत्ता आया 
चुरायी सूखी रोटी।
बावर्ची ने कलछ उठाया
और कर दी बोटी बोटी!
फिर सारे कुत्ते आये
रसोई में दौड़े दौड़े 
और क़बर खोद कर उसकी
लिख दिया उसी पर यह - 
'आने वाली कुत्ती नसलों के लिये'। 
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किसी भी स्पष्टीकरण के लिये आप सैम्युअल बैकिट या कृष्ण बलदेव वैद से सम्पर्क कर सकते हैं। नेट आप के पास है- पता सता खुद ढूँढ़ लीजिये। 
हाँ, इस रचना में परिवर्द्धन के लिये आप की पंक्तियाँ आमंत्रित हैं। 


मंगलवार, 3 जनवरी 2012

2012 की खस्ता शुभकामनायें!


(चचा ग़ालिब से क्षमा याचना सहित)
हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पर दम निकले
जहाँ पढने की बातें हों, वहाँ से बचके हम निकले
शराबी जूस भी लाये, मनाये ये कि रम निकले
मिले भुगतान जो तुमसे, गिने फिर भी वे कम निकले
लगा थैले में पैसे हैं, खुला तो फ़टते बम निकले
चचा सूरज से चमके थे, भतीजे हिम से जम निकले
[अभी का तापक्रम 10°F (शून्य से 12.22°C नीचे) है]