मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

निकला होगा चान्द ...

डॉ. राही मासूम रज़ा से क्षमा याचना सहित, आपकी खिदमत में अर्ज़ किया है:


हम सोबर* परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

हिन्दी कैद में बैठी रोवे, टूटे अंग्रेज़ी की टांग॥
हम सोबर परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

नेता मंच सजाकर बैठे, करते नूतन स्वांग॥
हम सोबर परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

रिश्वत बाबू धरना देते, पूरी कर दो मांग॥
हम सोबर परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

सत्यमेव जी दाब दिये हैं धर मिट्टी की ढांग॥
हम सोबर परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

मुर्गे कट के छिले तल गये, उल्लू देते बांग॥
हम सोबर परदेस में, देस में घुटती होगी भांग।। हो ओ ओ...

-=<*>=-
*सोबर = टुन्नात्मकता का व्युत्क्रमानुपाती
-=<*>=-

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

महाकवि फत्ते के बेढंगे दोहे

बड़े बड़ाई ना तजें, मन में रहे फितूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।

चलता राही देख के, कउवा रहा हर्षाय
कपड़ों पर बीट की, जोरू पीटे दौड़ाय।

फत्ते सुमिरन ना करे दुख पाए दिन रात
जब भी गैस खत्म हो, खाये बासी भात।

बैठी चिड़िया डार पर, गाए अजब सा राग
सारे बटन नोच गई, दर्जी तक पहुँचो भाग।

फत्ते माला ना जपो, जीवे तुम्हरी हीर
रटते रटते चुप हुई, अंगुली गठिया पीर।
 
  

रविवार, 28 नवंबर 2010

अभी तो मैं जवान हूँ ...

हिन्दी ब्लॉग जगत के चिर-युवा सतीश जी ने "जब हम जवान थे" का राग छेडा तो हमें ख्याल आया कि अगर यह शिकवा अगर खस्ता होता तो कैसा होता:

देखती थीं आंखें सब
सुनते साफ कान थे
हाथ पांव कसरती
कभी तो हम जवान थे

घिस रहे हैं गाल हम
कस रहे है चाल हम
वृद्ध न कहना हमें
रंग रहे हैं बाल हम

महफिलों की शान हैं
गामा पहलवान हैं
वृद्ध न कहना हमें
अभी तो हम जवान हैं|
.

रविवार, 21 नवंबर 2010

फत्ते की फालतू

तेरे गुनाह-ए-इश्क़ में सनम मैं तार तार हुआ
चप्पलें चलीं, घिसीं फिर चिपक बेड़ियाँ हुईं
रूमाल में सेंट सेंटी हुआ जब हथकड़ी अदा हुई
बह चले पनारे नाक से आँख कीच कचा हुई
ग़म नहीं फत्ते को कि तुम पोंछने नहीं आई।

गम इसका रहेगा हमेशा कि जब  गिरफ्तार हुआ
जार जार रोया चीख से नींद सबकी हराम किया
लुटा पिटा बिलबिलाता भूख से चिल्लाता रहा
कभी ईर कभी वीर संग रेस्ट्रा कबाब खाती रही
पर दिल के दरवज्जे तुम टिफिन तक न ले आई।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

मतलब की दोस्ती

उल्लू के पट्ठे
हुए हैं इकट्ठे
बिठाने चले हैं
अपने ही भट्टे
उल्लू के पट्ठे...

सोमवार, 8 नवंबर 2010

जिसका काम उसी को साजे

रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता है - Miles to go before I sleep. बच्चों के बुढ़ऊ अंकल नेहरू इसे अमर कर गए क्यों कि मृत्यु के समय यह कविता उनकी टेबल पर पाई गई। अब चाहे जो कारण रहे हों, पाई गई और इंस्टेंट हिट हो गई। 

मैंने कभी उन 4 पंक्तियों का अनुवाद किया था जिसे साथियों ने बहुत पसन्द किया।

गहन एकांत वन तिमिर शांत
परंतु प्रतिज्ञाएँ हैं उद्भ्रांत
मीलों जाना इसके पहले की होऊँ शान्त
मीलों है जाना इसके पहले कि होऊँ  शांत।

आज गंगेश को गर्वपूर्वक सुनाया तो उसने धीरे से कहा आप शायद lovely को lonely जान रहे थे। इसीलिए 'एकांत' अनुवाद किये हैं लेकिन lovely ही सही है। मुझे साँप सूँघ गया। घबराहट दबा कर 'जो बोले सो कुंडी खोले' की तर्ज पर मैंने कहा - तुम्हीं कर दो बढ़िया सा अनुवाद। 

थोड़ी देर बाद यह जवाब मिला: 
गहन सुंदर तिमिर वन
उसमे ज़ोर से सन्नाटा बाजे 
जिसका काम उसी को साजे 
दूजा करे तो डंडा बाजे

साथ ही स्माइली के साथ क्षमा प्रार्थना: आपसे ही सीखा है 'खस्ता शेर' ब्लॉग पर। 
हमलोग इस ब्लॉग पर अच्छी सीखें दे रहे हैं कि नहीं? 

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

फत्ते का चौथा

फत्तू की करवाचौथ तो आपने देख ली मो सम कौन पर अब समय है फत्ते का चौथा देखने की। देखते हैं भाई कित हान्डै सै:

साल भर इतराकर
नाकों चने चबवाकर
फत्ते की घराळी ने
चौथे के दिन छूकर
पंजे धोक लगाई
आशीर्वाद भी मांगा
तो बेचारा नूँ बोल्या
खुश रहो, आबाद रहो
सदा ज़िन्दाबाद रहो
कराची या फैसलाबाद रहो
मन्नै बख्शो, आज़ाद रहो।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

लू

अर्ज किया है:


अपने खतूत में यूँ इश्क की बात न कर महबूब 
तुम रेगिस्तान में हो, मुझे चाँदनी में लू लगती है।


मर्ज-ए-अर्ज का नुस्खा है: 


थोड़ी देर और बैठा करो 'लू' में महबूब 
डब्बे का पानी सिर पर भी पड़े तो काम बने।  




अराउंड ए लू शेर को ऐसे घुमा गया शायर
चान्दनी औ' पानी दोनों बरसा गये फायर

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

नंबर एक - इचिबान - अव्वल दर्ज़ा - न्यूमेरो उनो

मैने कहा तू कौन है
कहने लगा बकवास जी

मैने कहा करता है क्या
उसने कहा तीन-पांच जी

मैने कहा चाहता है क्या
उसने कहा दस्सी-पंजी

मैने कहा चलते नही
उसने कहा हमसे क्या जी

मैंने कहा उस्तादी क्यों
बोला मेरी फितरत है जी

पूछा तेरा उस्ताद कौन
कहने लगा खुरपेंच जी

उसने कहा नम्बर लिखूँ
मैने कहा मुझे बख्श जी

कहने लगा किरपा करो
खस्ता है नंबर एक जी!

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

सस्ता क्यों रोये भला?

महंगे की राह छोड़ कर सस्ती तरफ चले
चीज़ें वही लें यार हम जो जो मुफत मिले

सौदे में लेन लेन हो देना न हो कभी
देने की बात आये तो फर्जी डगर चले

भूखों में बाँट दें अनाज ऐसे गधे नहीं
गोदाम में भले वही बरसों बरस गले

हम चढ़ रहे हैं ऊपरी सीढ़ी हरेक रोज़
फुकरे फकीर चाहें तो सौ बार अब जले

(संशोधित संस्करण - आगे की पंक्तियाँ गिरिजेश की टिप्पणी के बाद)

मुफ्ती कबाब मुफ्ती शबाब मुफ्ती सबाब है
मुफ्ती मिले शराब क्या हीरा भी चाट ले

भजनो अज़ान से इन्हें फुर्सत कहाँ हुज़ूर
मज़हब के नाम पर भले कटते रहें गले

माल-ए-मुफत ने कर दिया बेरहम जनाब
मुफ्तियों का क्या जो राह-ए-हवस चले

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

ईर, वीर, फत्ते का झगड़ा

ईर कहेन वीर से चलो झगड़ा कर आईं ,
वीर कहेन फत्ते से चलो झगड़ा कर आईं, 
फत्ते पूछे - केसे कर आईं? काहें कर आईं?

ईर दिए एक लाफा,
वीर दिए दुइ लाफा, 
फत्ते बस गाल सहलाते रहे। 

झगड़ा गड़ा गया। 

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

तेरा ना होना जाने क्यूँ होना ही है

गिरिजेश राव के प्रोफाइल पर शीर्षक वाली पंक्ति देखी तो चार लाइनाँ मुखरित हुईं - प्रस्तुत है

तेरा मिलना न जाने क्यों खोना ही है
हाथ कभी मिल जाये तो धोना ही है

आम, पपीते के भाव गिरा देगा
पेड बबूल का जिसे बोना ही है

सुबह उठने की क्या बात है भाया
शाम ढले फिर जब सोना ही है

ज़िन्दगी दद्दू की कटेगी डिस्को में अब
मन्दाकिनी समझा जिसे मैडोना ही है

सूखी खानी हो तो मूंगफली खाओ
बादाम खाने से पहले भिगोना ही है।

ख्वाबों की हक़ीकत जब से जानी मैंने
मेरा हंसना न जाने क्यों रोना ही है

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

वीर तुम ...धीर तुम

वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

हाथ में कलम रहे नेट खुशफहम रहे
तू कभी रुके नहीं सत्तू कभी मुके नहीं
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

सामने पहाड़ हो शेरनी दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
ब्लॉगभूमि के लिये, दही दिमाग के लिये
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

अन्न गृह में भरा वारि नल में भरा
बरतन खुद निकाल लो खाना खुद बना लो
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !


रविवार, 26 सितंबर 2010

वो आए घर हमारे, हाय रे!

वो आए घर हमारे
कर गए हजम 
प्लेट के बिस्कुट सारे। 

हाल चाल चली  
बोल बाल हुई 
डिनर तक रात गई
हमने पूछा जो खाना
चट से उठ कर सकारे। 
हाय रे! 

चार दिन के बराबर 
रोटियाँ जो पकाईं 
बीवी बमकी 
मुझे झुरझुरी सी आई। 
मैं हाथ धो भी लिया
उनको लाज न आई ।

मिलते रहे पसीने के धारे 
खा कर उठे वो 
मेहनती गुँथाई  
लेते रहे डबलिया डकारें। 

कह गए चलते चलते 
रोटियाँ थीं मोटी और 
बिस्कुट कम करारे। 
हाय रे!   
  

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

ईर, वीर, फत्ते के परेमपत्तर

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एक रहेन ईर, एक रहेन वीर, एक रहेन फत्ते।

ईर कहेन वीर से - चलो परेमपत्तर  लिखा जाई 
वीर कहेन फत्ते से - चलो परेमपत्तर  लिखा जाई 
ईर लिखे एक ठो 
वीर लिखे दू ठो 
फत्ते लिखे पूरी रमयनी। 

ईर कहेन वीर से - चलो परेमपत्तर दिया जाई 
वीर कहेन फत्ते से - चलो परेमपत्तर दिया जाई 
ईर दिएन अपनी वाली को 
वीर भी दिएन अपनी वाली को 
फत्ते की कोई थी ही नहीं! 
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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जीवन की राहें - एक खस्ता पैरोडी

पाठकों की बेहद मांग का आदर करते हुए एक बासी कचौड़ी उबालकर प्रस्तुत है

आलू भरी वो, कचौडी बनाएं
ख़ुद भी खाएं, हमें भी खिलाएं
आलू भरी वो...

भरवां करेले नहीं माँगता हूँ
पूरी औ' छोले नहीं माँगता हूँ
पत्तों की चटनी बनाकर वो लायें
ख़ुद भी चाटें, हमें भी चटायें
आलू भरी वो...

कैसे बताऊँ मैं भूखा नहीं
खा लूंगा मैं रूखा सूखा सही
मुझको न थाली सुनहरी दिखाएँ
ख़ुद भी खाएं, हमें भी खिलाएं
आलू भरी वो...

अरे पता है कि चित्र में कचौडी नहीं परांठा है - जभी तो कचौडी की तमन्ना है

आपके खस्ता शेरों का स्वागत है - शर्त इतनी है कि शेर आपके अपने हों - और अगर औटो या ट्रक वाले के हैं तो ट्रैफिक पुलिस का अनुमतिपत्र साथ में नत्थी हो। 
धन्यवाद!
[चाय का प्याला और आलू परांठा का चित्र - अनुराग शर्मा द्वारा :: The tea mug and aloo parantha photograph by Anurag Sharma]

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कंजूस दोस्त के लिए थोड़ा दुआत्मक हो लें!

ये रहे कुछ फटीचर से शेर:

तुम्हारी जुस्तजू रहे, अदा रहे, गड़ा रहे 
दुआ बस यही कि तू यूँ ही सड़ा रहे। 

हसीं शामें हों, दिलरुबा हो, मैकदा हो 
दुकान पर पेमेंट को तू यूँ ही अड़ा रहे। 

तरन्नुम, तकल्लुफ, तवक्कुफ, उफ उफ 
सब सनम के, तू नाली में यूँ पड़ा रहे।

गिर गईं कितनी चवन्नियाँ फटी जेब से 
रुपयों के आगे तू लिए कटोरा खड़ा रहे। 

जो फँस जाती है हमेशा जीन्स की जेब में 
फटे पर्स उसमें बस बिल कोई बड़ा रहे।   

रविवार, 5 सितंबर 2010

सच्‍चा बच्‍चा

मौलिकता की इस दौड में
भौतिकता की ओट में
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
तू सोचे मैं दे दूं गच्‍चा
और मैं सोचूं मैं दे दूं गच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

जीवन की चकाचौंध में
उठापटक की इस दौड में
रेलमपेल के इस खेल में
भ्रष्‍टाचार के इस दौर में
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

पहचान छुपा कर खुला घूमता
हम्‍मामों में खुद को ढूंढता
ओढी मुस्‍कानों में बेशर्मी समेटता
झूठी दिखाते शान मुंह छिपा जेब टटोलता
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

घर में रोते बच्‍चे औरतें
तू शान से मुंह उठाता घूमता
दिल में नहीं दम पर
ठाठ से धुंए के छल्‍ले उडाता
गम देकर जमाने को
शान से दारु पीकर गम भुलाता
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

शनिवार, 4 सितंबर 2010

थकी हुई शायरी - तड़पते अश'आर

साहेबान, मेहरबान, पहलवान, खानदान, मसालदान,

अगर आपको दरकार है आला दर्ज़े की शायरी की तो चलते फिरते नज़र आइये क्योंकि उस किताबी शायरी की दुकान तो हमने बढा दी है (वरना बाकी शायर भूखे मर जाते न भई!)

हाँ अगर हल्की फुल्की चल्ताऊ, ऑटो रिक्शा छाप शायरी सुनने की इच्छा है, तो बिल्कुल सही ठिये पर आये हैं आप।

शायरी सुनाऊंगा ऐसी धांसू ।
कि सुनके आ जायेंगे आंसू॥

और हाँ, एक बात समझ लें आप, पहले से बताये दे रहा हूँ, कहीं बाद में शिकवा शिकायत कन्ने बैठ जायें, हाँ नईं तो! हियाँ कोई जोक-वोक नहीं सुनाया जायेगा, अलबत्ता चरपरे चुटकुलों की बात अगल्ल है, वो चलेंगे, अरे दौडेंगे भई दौडेंगे।

अगर आपको भी ऑटो रिक्शा में बिला मीटर ठगे जाते वखत कोई धांसू शेर पढने का मौका मिलता है तो हमारे साथ ज़रूर बांटिये।

तो तैयार हो जाइये कफन बांध के कि हम आज की मजलिस की शम्मा का आगाज़ करते हैं:

हम थे जिनके सहारे...
हम थे जिनके सहारे...

हमारे खोम्चे में सभी कुछ है - खस्ता शेर, कागज़ी गोलगप्पे, और किताबी पानीपूरी

अरे अब नीचे इसकिरोल भी करो न, आगे का कलाम सुन्ना नईं है क्या?

हम थे जिनके सहारे
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...

दर्द किससे कहें हम
दर्द कैसे सहें हम
दर्द में क्यों रहें हम
दर्द से कौन उबारे...

हम थे जिनके सहारे...
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...



अगली कडी तक के लिये खुदा हाफिज़! फिर मिलेंगे, गुड बाय, टाटा, हॉर्न प्लीज़!

[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]